शिवकुमार सिंह कौशिकेय की कलम से
भृगुक्षेत्र बलिया की पावन भूमि पर भी पधारें थे, गुरु नानकदेव जी, उनके श्रेष्ठ पुत्र श्रीचंद जी के शिष्यों ने आज भी संजो रखा है उदासी परंपरा को ।
भृगुक्षेत्र बलिया की पावन भूमि पर भी पधारें थे, गुरु नानकदेव जी, उनके श्रेष्ठ पुत्र श्रीचंद जी के शिष्यों ने आज भी संजो रखा है उदासी परंपरा को ।
भारत-पाक तनाव के बीच भारत के डेरा बाबा नानक और रावी नदी के पार नानकदेव की अंतिम साधना शरीर छोड़ने की भूमि करतारपुर कॉरिडोर को आस्थावानों के उन्मुक्त करने की शीतल बयार के बहाने अध्यात्मतत्ववेता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय ने बताया कि गुरु नानकदेव जी अपनी पहली उदासी (सन् 1500-1505 ई0 की यात्रा ) में अयोध्या, मथुरा, काशी, बोधगया की यात्रा क्रम में बनारस से छपरा जाते समय बलिया में रुके थे । अपनी पाँच साल की उदासी पैदल यात्रा में अपने शिष्यों मरदाना और बाला के साथ नानक देव जी अयोध्या से प्रयागराज गये थे वहाँ से बनारस आये और बनारस से छपरा , हाजीपुर होकर पटना गये थे ।
श्री कौशिकेय ने बताया कि इस उदासी पड़ाव को बलिया जिले के लोगों ने उदासी मठ के रुप में संजो कर रखा था । किन्तु सन् 1902ई0 और 1948 ई0 में बलिया में आई प्रलयंकारी बाढ़ की कटान ने बलिया नगर सहित इस उदासी मठिया का अस्तित्व मिटा दिया था । जब तीसरी बार बलिया शहर को बसाया गया तो शहर के बनकटा मुहल्ले में स्थित उदासी मठ को गुरु नानक देव जी के पुत्र श्रीचंद जी महाराज के शिष्यों ने पुनः बनाया । यद्यपि यह उदासी मठ 1948 ईस्वी में बनें बलिया शहर सुरक्षा बाँध की सुरक्षा के बाहर दक्षिण नदी के प्रवाह पथ में है, किन्तु स्थान के महत्व के कारण इसे संरक्षित रखा । इस मठ से जुड़े श्रीचंद जी महाराज के शिष्यों द्वारा भृगुआश्रम में एक भव्य मठ बनाया गया है, जिसमें नानकदेव जी के पुत्र श्रीचंद जी की आदमकद संगमरमर की प्रतिमा स्थापित है । इस मठ के महंत ओउम प्रकाश शास्त्री जी के देहावसान के बाद वर्तमान में श्री राजीवानंद जी श्री महंथ हैं । इसके अतिरिक्त जिले में अनेक इस उदासी मठ की मठिया हैं, जो नानकदेव जी के पुत्र श्रीचंद जी महाराज के शिष्यों द्वारा संचालित होती है ।
श्री कौशिकेय ने बताया कि तलवंडी पंजाब के मेहता कालूजी और तृप्ता देवी के पुत्र रुप कार्तिक पूर्णिमा संवत् 1527 ईसासन् 1469 में पैदा हुए नानक देव बचपन से ही वीतरागी वृत्ति के थे, मात्र सोलह साल की आयु गुरुदासपुर के लाखौकी गाँव की कन्या सुलक्खनी देवी के साथ इनका विवाह हुआ । बत्तीस साल की उम्र में इनके पहले पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ, उसके चार वर्ष बाद दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ था । 1500 ईस्वी में अपनी पत्नी और बच्चों को अपने श्वसुर के हवाले छोड़ कर अपने शिष्य मरदाना और बाला के साथ नानक देव उदासी पर निकल गये थे । इन्होंने अपने जीवन में चार उदासी 38 हजार मील की पैदल यात्रा किया था ।
जिसमें वर्तमान के भारत, पाकिस्तान, भूटान, तिब्बत, नेपाल, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, सीरिया, जार्डन, सऊदी अरब, इजरायल आदि देश शामिल हैं ।
श्री कौशिकेय ने कहा कि अपनी पहली उदासी की शुरुआत गुरु नानकदेव ने गुरुद्वारा गोइंदवाल अमृतसर से किया जिसमें उन्होंने कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, दिल्ली, आगरा, मथुरा, अयोध्या, प्रयागराज काशी, भृगुक्षेत्र बलिया, पटना, बोधगया आदि स्थानों से होते हुए असम के सुदूर पूर्वोत्तर क्षेत्र तक गये थे ।
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