मेरी परछाई से रूबरू होता रहा
कभी चलता कभी सोता रहा
ठोकरें लगती रही हर मोड़ पर
मैं सोता रहा लूटता रहा।
जिंदगी से इस कदर मुखातिफ़ होता रहा
हाथ थामे ना पथिक कोई दिखा
दर्द के नगमों को शब्दों में पिरोता रहा
जो अजीज थे मेरे उन्हें खोता रहा
अनजान राह पर बेबाक चलता रहा।
जिंदगी से इस कदर मुखातिफ़ होता रहा
अपनी आँखों में सपने सजोंता रहा
परछाईयों ने साथ छोड़ा, मैं रोता रहा
दर्द में भी आह भर ली कुछ इस कदर
पल-पल मैं मरता रहा जीता रहा।
जिंदगी से इस कदर मुखातिफ़ होता रहा
जीत कर भी हार का स्वाद मैं चखता रहा
गैरों से क्या डरू, मैं अपनों से लुटता रहा
जिंदगी की ठोकरों से दरबदर बजता रहा
अपनों ने नहीं बख्शा पर मैं अपना कहता रहा
जिंदगी से इस कदर मुखातिफ़ होता रहा
✍️भोला सिंह✍️
महावीर धाम सोसाइटी
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