जिसको विधि भी ,ना टाल सके
रण ऐसा होने वाला था।
गृहयुद्ध महाभारत का अब
कुरुक्षेत्र में होने वाला था।
उस तरफ गरजना कौरव की
पांडव ने भी ललकारा था
बस एक शक़्स था ,मौन खड़ा
माधव को ये न गवाँरा था।
श्री कृष्णा, हाथ बढ़ाये और
बोले- ए मेरे पार्थ वीर
क्या हुआ तुझे? क्यों मौन है तू।
रख दिया क्यों तूने धनुष-तीर।।
अर्जुन करबद्ध हुए, बोले।
प्रभु! कैसे ये कर डालूँ मैं।।
एक तुच्छ भूमि के खंड हेतू।
अपनो को कैसे मारूँ मैं।।
अर्जुन की हालत देख ,प्रभु।
जो भी यथार्थ दिखलाये थे।।
रण- क्षेत्र में ही श्री विष्णु उन्हें।
गीता का पाठ पढ़ाये थे।।
माधव अर्जुन से बोल उठे।
मेरे होते क्यों डरता है।।
तू हो निर्भय, तू हो निर्दय।
मारो ,जैसे जो मरता है।।
सब कुछ विध्वंस के खातिर अब।
अर्जुन ने हिम्मत जुटा लिया।।
था पार्थ, जो अब तक डरा हुआ।
गांडीव हाथ में उठा लिया।।
हुंकार उठा अर्जुन रण में।
यद्यपि तुम सभी हमारे हो।।
तुम सब का वध कर डालूंगा।
तुम सब पापी-हत्यारे हो।।
इस तरह प्रभु श्री कृष्णा ने।
जो चाहा वैसा किया यहां।।
अहंकार मिटाने की खातिर।
महाभारत रच ही दिया यहाँ।।
✍️ प्रणव मणि त्रिपाठी"अटल"
महावीर धाम सोसाइटी रसड़ा
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