सोनाडीह, बलिया। एक तरफ सरकार जहां जलस्तर ठीक रखने के लिए जलाशय व पोखरों पर पैसा पानी की तरह बहा रही है वहीं दूसरी तरफ कूओं की घोर उपेक्षा हो रही है। हालत यह है कि धार्मिक अनुष्ठानो के लिए कूओं के पानी के लिए भटकना पड़ रहा है।
आज के बदलते परिवेश में ऐसी चीजें विलुप्त होती जा रही है।, जिनका
प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने में अहम भूमिका रही है। उन्ही में से एक कड़ी कुआं भी है। कभी पीने के पानी के लिए ग्रामवासी कूओं पर ही निर्भर करते थे। परन्तु वर्तमान समय में गांवों में लगभग कुओं का अस्तित्व ही समाप्त हो चुका है। अगर यह कहीं नजर भी आते हैं तो मात्र उनके बचे-खुचे कंकालों के अवशेष अथवा कूड़े करकट व कचरे से पटे 4-5 फीट गहरे ढांचे। भाग्यवश कोई बचा भी है तो लोगों ने उसे ढककर अलग-थलग कर दिया है। ऋषि-मुनियों की शस्य-श्यामला देव भूमि भारत माता आहिस्ता-आहिस्ता लोकहित में किये गये
कार्यों की विरासत रूपी धरोहर खोती जा रही है। यद्यपि कि कूओं के
उपयोगिता के कारण ही उन्हें धार्मिक महत्वों के साथ जोड़कर रखा गया था।
परन्तु आज धार्मिक अनुष्ठानो के लिए कूओं का पानी न मिलने से हैण्डपाइप के पानी से ही कार्य चलाया जा रहा है। सरकार द्वारा जल संरक्षण के लिए चलाये जा रहे अभियान भी इसका अस्तित्व बनाये रखने में विफल साबित हो रहे हैं। वर्तमान समय लग्न के इस मौसम में कूओं के विलुप्त होने से मांगलिक कार्यों के लिए लोगों को हैण्डपाइप का सहारा लेते देखा जा सकता है।
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